देश को कहां ले जा रहे हैं हमारे राजनेता!

कमल सेखरी
ना कोई राजनीतिक मापदंड, ना मर्यादित व्यवहार, ना भाषा का संतुलन, ना मधुर वाणी, ना कोई सौहार्द की भावना, बस आरोप-प्रत्यारोप वो भी अश्लीलता की सभी सीमाएं पार करके, हमारे राजनेता हमारे देश को कहां ले जाना चाहते हैं। सत्ता में बने रहने के लिए और सत्ता में आने के लिए हमारे ये राजनेता सभी मर्यादाएं तोड़कर जिस आचरण का प्रदर्शन कर रहे हैं उससे पूरा देश शर्मसार हो रहा है। सत्ता पाने की लोलुपता ने इन्हें इस स्तर पर गिरा दिया है कि सत्ता पाने के लिए ये राजनेता कुछ भी ऐसा कर सकते हैं जिसकी आम आदमी कभी कल्पना भी नहीं कर सकता। 60 और 70 के दशक में हमारी कई हिन्दी फिल्मों ने बड़े सार्थक संदेश दिए, गीतकारों ने देश को सार्थक दिशा देने के लिए बड़े भावुक गीत लिखे और फिल्म निर्माताओं ने बड़ी शिददत से फिल्में बनाकर देश को प्रगति, आपसी स्नेह, पारस्परिक सौहार्द से देश को आगे चलाने की सोच और दिशाएं देश के सामने रखीं। देश को प्रेरणा देने के लिए साठ के दशक में गीत लिखा गया जो देश-दुनिया में बड़ा लोकप्रिय हुआ। हम लाएं तूफान से किश्ती निकालकर, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभालकर। आज जो शीर्ष नेतृत्व में देश की सत्ता पर आसीन राजनेता हैं वो उस समय छोटे बच्चे ही रहे होंगे या इनमें से कुछ का जन्म उसके बाद हुआ होगा। इन सभी ने आज मिलकर उस देश हित की भावना से प्रचलित लोकप्रिय गीत के अर्थ को अनर्थ में बदल दिया। आजादी के सात दशक बाद जो तूफान से निकालकर किश्ती लाई गई थी उसे आज बीच भंवर में डुबो दिया। इसी दौरान एक और गीत लोकप्रिय हुुआ। तू हिन्दू बनेगा ना मुसलमान बनेगा, इन्सान की औलाद है इंसान बनेगा। लेकिन हमारे इन राजनेताओं ने देश की आवाम को इंसान की औलाद बनने ही नहीं दिया। हिन्दू-मुसलमान का धर्मों में फर्क डालकर नफरत का ऐसा जहर परोसा कि देश हिन्दू-मुसलमान में बंटता नजर आ रहा है। आज की राजनीति का आधार हिन्दू-मुसलमान ही बनकर रह गया है। इसी 60-70 के दौर मेें एक और गीत लोगों के दिल के करीब आया जिसके बोल थे छोड़ों कल की बातें, कल की बात पुरानी, नए दौर में लिखेंगे हम मिलकर नई कहानी, हम हिन्दुस्तानी। इस गीत के माध्यम से छह दशक पहले दिया गया देश परिवर्तन का यह नारा हमारे राजनेताओं ने अपने स्वार्थों के चलते बुरी तरह से रौंद डाला। हमारे आज के राजनेता ना तो आज की बात कर रहे हैं और ना ही देश को आने वाले कल में आगे ले जाने की किसी योजना का जिक्र अपनी किसी बात में कर रहे हैं। एक दूसरे पर आरोप लगाते हुए छह दशक पहले या सात दशक पहले किस पार्टी के किस नेता ने क्या-क्या गलतियां की उन्हीं को आपसी बहस में गिनाना शुरू कर देते हैं। हम खुद आज भी नए भारत को नई दिशा में कैसे ले जाएंगे इसकी ना तो कोई योजना है और ना ही किसी राजनीतिक दल का कोई प्रयास इस ओर होता दिखाई दे रहा है। महंगाई से देश का क्या बुरा हाल है, इस पर चर्चा कहीं होती नजर नहीं आती। शिक्षित युवक करोड़ों की संख्या में बेरोजगार हैं उस ओर किसी राजनीतिक दल का कोई प्रयास होता नजर नहीं आ रहा है। सत्ता में कायम रहने और सत्ता में आने के प्रयास का एक ही रास्ता इन राजनेताओं ने चुन लिया है। वो रास्ता इतना सुगम और सरल नजर आ रहा है कि देश के आवाम को मुफ्तखोरी के नशे में डुबो दो और आसानी से बिना कुछ किए सत्ता पर कब्जा कर लो। नकदी बांटकर देश के अवाम को रिश्वतखोर बना दो, तरह-तरह के उपहार बांटकर और मुफ्त बस यात्राएं कराकर मतदाताओं को मुफ्तखोर बना दो, ताकि देश का आवाम कुछ सोचने, समझने और कुछ करने लायक ही ना रह पाए। राजनेताओं का यह चलन देश को कहां ले जाएगा, इसकी कल्पना चिंतनशील सोच के साथ अगर हम करें तो दिल दहल उठता है। इस मुफ्तखोरी के क्या परिणाम आने वाले समय में देश को देखने को मिलेंगे यह सोचकर भी कंपकंपी सी महसूस होती है। हमारे ये राजनेता जो खुद को अपने आपसे ही जनसेवक बोलते हैं वो अपने ऐसे आचरण के चलते आज देश के सबसे बड़े देशद्रोही बनते दिखाई दे रहे हैं। इन कलयुगी राजनेताओं की नजर है कवि स्वर्गीय सुमन जी की ये पंक्तियां:-
घन पतन के वतन पर सघन छा गए।
हम कहां थे, वहां से कहां आ गए।।
आम जनता रही राम के आसरे।
देश के देवता देश को खा गए ।।