कमल सेखरी
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के होने में नब्बे दिन से भी कम का समय रह गया है। इन राज्यों में से सबसे अधिक जोर उत्तर प्रदेश के चुनावों को लेकर दिया जा रहा है। भाजपा सहित अन्य सभी दल यह बात बखूबी जानते हैं कि जिसने उत्तर प्रदेश जीत लिया उसने आगे चलकर देश भी जीत लिया। इसी को लेकर सबसे अधिक गहमा गहमी उत्तर प्रदेश के चुनाव को लेकर चल रही है। आगे आने वाले दिनों में राजनीतिक समीकरण क्या बैठेंगे यह तो आने वाला समय ही बता पाएगा लेकिन फिलहाल तो हर राजनीतिक दल यही दावा करता नजर आ रहा है कि वो विधानसभा चुनाव अकेले अपने दम पर ही लड़ेगा किसी बड़े दल से गठबंधन नहीं करेगा। मौजूदा स्थिति का अगर सही से आकलन किया जाए तो यह तस्वीर उभरकर आती है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में सत्ता दल भाजपा की स्थिति उत्तर प्रदेश में वैसी नहीं रहने वाली है जैसी कि 2017 के चुनाव में हम लोगों के सामने निकलकर आई। उस समय भाजपा का नेतृत्व संभाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का डंका पुरजोरता से बज रहा था और उनके चेहरे पर उत्तर प्रदेश तो क्या पूरे देश के अवाम का एक बड़ा हिस्सा आंख मूंदकर पीछे लगा था। लेकिन आज की स्थिति में शायद वैसा नहीं है और वो भी प्रदेशों के विधानसभा चुनावों को लेकर स्थिति पहले से बहुत भिन्न है। ऐसा अनुभव हम अभी कुछ समय पहले से अब तक हुए प्रदेश चुनावों और उपचुनावों में कर भी चुके हैं। अगर बात उत्तर प्रदेश की की जाए तो यहां की स्थिति अन्य प्रदेशों से काफी भिन्न है क्योंकि यहां का चुनाव इस बार प्रधानमंत्री मोदी के नाम से नहीं बल्कि मुख्यमंत्री योगी के चेहरे पर लड़ा जा रहा है। मानने वाले यह मानते हैं कि इन दोनों चेहरों के बीच एक बड़ा अंतर है और वो अंतर अगले विधानसभा चुनावों में देखने को भी मिल सकता है। उत्तर प्रदेश की अन्य स्थितियों में एक स्थिति यह भी है कि 2017 में भाजपा नरेन्द्र मोदी के चेहरे के अलावा जिस और आधार पर जीती वो एक बड़ा कारण उस समय की समाजवादी पार्टी की सत्ता से लोगों की नाराजगी का भी था। वही कारण अब इस बार 2022 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर से उभरकर सामने आ सकता है। सत्ताधीश अपने चारों ओर बन रहे वातावरण का शायद ठीक से आकलन नहीं कर पा रहे हैं लेकिन यह वास्तविकता जल्दी ही अगले चुनाव में सामने आ सकती है कि उत्तर प्रदेश में आम आदमी मौजूदा सरकार से उतना प्रसन्न नहीं है जितना कि किसी एक सरकार को दोबारा सत्ता में आने के लिए लोगों की रजामंदी जरूरी होती है। बढ़ती महंगाई, कमजोर कानून व्यवस्था, महंगी बिजली और प्रशासन व शासन स्तर पर भ्रष्टाचार में हुई बेहिसाब बढ़ोत्तरी भी लोगों की नाराजगी का एक बड़ा कारण बनकर सामने आ सकते हैं। इसी के साथ-साथ सत्ता की डोर संभाले मुखिया का दबदबा और खौफ पार्टी के अंदर विधायकों में इस कदर देखने को आया है कि कोई भी विधायक अपने क्षेत्र में न तो खुलकर फैसले कर पाया है और न ही चाहते हुए भी लोगों की मदद कर पाया है। सत्ता के इस दौरान विधायकों की बात तो अलग मंत्रियों तक की सुनवाई मुखिया के आगे प्रभावी होती नजर नहीं आई। राज्यमंत्रियों की हैसियत पार्टी के एक सामान्य कार्यकर्ता से भी ऊपर की नहीं बन पाई। ऐसे में विधायिकी का तमगा लिए अधिकांश विधायक कठपुतली मात्र बने ही काम करते रहे वो अपने व्यक्तिगत प्रयासों से कुछ ऐसा कर भी नहीं पाए कि आम लोगों से जुड़ सकें। आगामी वर्ष के प्रारंभ में ही होने वाले इस चुनाव में परिस्थितियां किस करवट बैठेंगी यह तो आने वाला समय ही बता पाएगा लेकिन यह तय है कि उत्तर प्रदेश अपनी पुरानी परंपरा को एक बार फिर से परवान चढ़ा सकता है, यह प्रमाणित करके कि इस सूबे में कोई भी राजनेता दोबारा मुख्यमंत्री नहीं बन पाया है और पिछले तीन दशक से किसी भी एक राजनीतिक दल ने लगातार दो बार सत्ता हासिल नहीं की है।