चर्चा-ए-आमलेटेस्टस्लाइडर

क्या मजबूरी है, जो औरंगजेब जरूरी है !

What is the compulsion that Aurangzeb is necessary?

कमल सेखरी
अब ऐसी क्या मजबूरी है जो औरंगजेब जरूरी है। पिछले कई दिनों से और खासतौर पर पिछले तीन दिनों में सपा नेता अबू आजमी के औरंगजेब को लेकर दिए गए बयान पर जो राजनीति महाराष्ट्र से शुरू होकर बिहार और उत्तर प्रदेश तक गर्मा गई है उसके पीछे क्या कारण है, क्या वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में अब विकल्प के रूप में औरंगजेब का नाम लेना जरूरी पड़ रहा है। महाराष्टÑ की सड़कों पर निकाले गए जुलूसों, जगह-जगह दिये गये सार्वजनिक भाषणों और देश के टीवी चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक चारों ओर औरगंजेब का नाम गूंजता नजर आ रहा है। इतना ही नहीं विभिन्न विधानसभाओं के सदनों से लेकर बड़े-बड़े राजनेताओं के बयानों में भी औरंगजेब के नाम की गूंज सुनाई दे रही है। इस नाम का इतना शोर चारों तरफ मचाया जा रहा है कि लगता है कि देश के सभी मीडिया माध्यमों में आज औरंगजेब नाम की टीआरपी सलमान खान, शाहरुख खान और अक्षय कुमार जैसे नामी फिल्मी सितारों से कहीं ऊपर पहुंच गई है, यहां तक की देश के कई शीर्ष नेताओं के नामों से भी ऊपर आज औरंगजेब के नाम की टीआरपी जाती नजर आ रही है। हमारे यहां आस्थाओं में ये मान्यता है कि मानव प्राणी का मरने के बाद दूसरा जन्म भी होता है। हमारे राजनेता जिस तरह से पुरजोरता के साथ औरंगजेब का नाम ले रहे हैं उससे लगता है कि मुगल बादशाह औरंगजेब भी दूसरा जन्म लेकर भारत की धरती पर उतर आए हैं। हम औरंगजेब के जिस नाम को इतिहास के पृष्ठों से हटाने की बातें कर रहे हैं उसी औरंगजेब का नाम वही लोग आज रह रहकर इतनी पुरजोरता से उठा रहे हैं कि यह नाम देश के आम आवाम के जहन में भी तेजी से उतरता जा रहा है। वो लोग जो नफरत से औरंगजेब का नाम लेकर विपक्षी दलों के नेताओं पर कई तरह के गंभीर आरोप लगा रहे हैं वही लोग आज औरंगजेब के उसी नाम को देश में घर-घर पहुंचाने का काम भी कर रहे हैं। सुबह से शाम तक टीवी पर चल रही खबरों को सुनकर बच्चे भी घरों में पूछने लगे हैं पापा ये औरंगजेब कौन था। क्या ये इतना फेमस आदमी था ये अच्छा था बुरा था जो सभी खबरों में इसका नाम रोज चल रहा है। पिता के पास बच्चों के इन प्रश्नों का जवाब नहीं है। अब ये हमारी कौन सी राजनीतिक मजबूरी है कि हमें राजनीति में औरंगजेब का नाम आज लाना जरूरी पड़ रहा है। महाराष्ट्र सरकार की मजबूरी तो ये मानी जा सकती है कि वो चुनाव से पहले मतदाताओं को दिये गये आश्वासनों को पूरा करने में असमर्थ हैं और खासतौर पर लाडली बहना के 15 सौ रुपए महीना जो वो नहीं दे पा रही है उससे सदन का और जनता का ध्यान भटकाने के लिए फिलहाल औरंगजेब से अलग कोई दूसरे नाम का विकल्प फिलहाल उसके पास नहीं है। उत्तर प्रदेश में और बिहार में मुख्यमंत्री से लेकर सत्ता दल के कई बड़े नेता भी रहरहकर औरंगजेब का नाम ले रहे हैं। राजनीतिक विशेषज्ञों का यह मानना है कि औरंगजेब का नाम अब राजनीति में तीसरे विकल्प के तौर पर लिया जा रहा है। धार्मिक मामलों में प्रभु राम का नाम जय श्री राम लेकर लिया जाता है, जातीय मामलों में डा.भीमराव अंबेडकर का नाम जय भीम कहकर लिया जा रहा है अब हिन्दू मुस्लिम राजनीति करने में तुष्टिकरण का आधार औरंगजेब के नाम से खोज निकाला है। अब नई खोज का यह नया नाम औरंगजेब अगले कुछ महीनों तक दूसरा कोई वैकल्पिक आधार मिलने तक लिया जाता रहेगा, ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है। औरंगजेब से नफरत जताने वाले और इस नाम को इतहास के पृष्टों से हटाने की पैरवी करने वाले हमारे ये राजनेता लगता है दिखावे मात्र को ही ऐसा कर रहे हैं। अपनी राजनीति को अपनी तुष्टिकरण के अनुसार आगे चलाने के लिए फिलहाल उन्हें औरंगजेब का नाम अभी माफिक आ रहा है और वो उसे तब तक चलाएंगे जब तक औरंगजेब का यह नाम उन्हें राजनीतिक लाभ पहुंचाता रहेगा। फिलहाल देश के सामान्य नागरिक को औरंगजेब के नाम से की जा रही इस राजनीति से ना तो कोई लेनादेना है और ना ही इसमें कोई रुचि है।

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