गणतंत्र दिवस भारत देश का एक राष्ट्रीय पर्व है। जो प्रतिवर्ष 26 जनवरी को मनाया जाता है। एक स्वतंत्र गणराज्य बनने और देश में कानून का राज स्थापित करने के लिए संविधान को एक लोकतांत्रिक प्रणाली के साथ लागू किया गया था। उसी प्रकार से हमारे जीवन पर भी एक आध्यात्मिक गणतंत्र लागू होता है। जिसके विषय में हममें से अधिकांश लोग अनभिज्ञ हैं। इसकी आज के परिपेक्ष्य में नितांत आवश्यकता भी है। ऐसी शिक्षा-नियम जिससे मनुष्य का भीतरी विकास हो सकता है। अध्यात्म जो हमारी भारतीय संस्कृति का मूल है उसी की आवश्यकता है हमारे जीवन पर लागू करने की।
ऐसा न हो हम अपने जीवन को इसी तरह बदरंग देखते जाए और पतन की खाइयों की ओर ले जाएं। इसीलिए समझना होगा आखिर वह कौन-सी शिक्षा है जिसके विषय में हमारे शास्त्र-ग्रंथ कहते हैं-सा विद्या या विमुक्तये। विद्या वह है जो मुक्ति प्रदान करें। जो केवल हमारा बाहरी विकास ही नहीं करती अपितु हमारा आन्तरिक विकास भी कर देती है। ऐसी ही विद्या की आवश्यकता है। यह बताना चाहेंगे कि आंतरिक विकास मात्र शिक्षा से नहीं हो सकता। उसके साथ-साथ दीक्षा का समन्वय बहुत जरूरी है। दीक्षा को परिभाषित करते हुए हमारे वेद-उपनिषद बहुत अच्छा कहते हैं जिस प्रकार से भस्म आच्छादित अग्निमुख प्रेरित वायु से दहक उठती है। सही समय पर बोया हुआ बीज पल्लवित एवं पुष्पित हो जाता है। ठीक उसी प्रकार से गुरु के द्वारा उपदिष्ट ज्ञानप्रदत्त आत्मज्ञान एक व्यक्ति/शिष्य/छात्र के जीवन में गुणों को रोपित करता है। आज हर व्यक्ति ढांचों को बदलने का प्रयास कर रहा है। लेकिन ढांचों में परिवर्तन लाना है तो पहले सांचों में परिवर्तन लाना होगा। इसीलिए शास्त्रों-वेदों-ग्रंथों ने उद्घोष किया कि आचार्यों को पहले स्वयं बाहरी ज्ञान के साथ-साथ उन्हें आंतरिक ज्ञान होना चाहिए फिर वो एक छात्र का पूर्ण और विकसित विकास कर सकते हैं। आज हमें भी समाज में ऐसी नवीन प्रणाली की आवश्यकता है जो हमारे बच्चों का पूर्ण रूप से विकास करें। उनमें पूर्ण व्यक्तित्व का आगाज करें। आशुतोष महाराज अक्सर कहते हैं पूर्ण व्यक्तित्व के निर्माण के लिए बाहरी शिक्षा और भीतरी दीक्षा दोनों का होना आवश्यक है। यही कारण है कि आज महाराज समाज के प्रत्येक प्राणी को उस ज्ञान के साथ जोड़ रहे हैं। तभी व्यक्ति के जीवन का आध्यात्मिक गणतंत्र लागू हो रहा है और व्यक्ति समाज के निर्माण में सहयोग दे पा रहा है।
समय की धाराओं ने रोम, बेबिलोन, सीरिया जैसी अनेकों संस्कृतियां बिखर कर अपना अस्तित्व खो बैठी। वहीं भारतीय संस्कृति एक ऐसी संस्कृति है जो इतनी आपदाओं के बाद भी चट्टान की तरह अडिग खड़ी है। क्या कारण है? क्योंकि भारतीय संस्कृति का आधार अध्यात्म है। भारत = भा+रत; भा अर्थात प्रकाश, रत अर्थात लीन रहने वाला। भारतवासी जो हमेशा ईश्वरीय प्रकाश में रत है वही भारतीय है। पुण्य भूमि भारत ने एक समय ऐसा दिया जब प्रत्येक कर्म में धर्म झलकता था। मुख मंडल पर देवत्व की झलक थी। तो धमनियों में त्याग तप का रक्त था। हर क्षेत्र में चर्मोत्कर्ष की प्राप्ति थी चाहे वो वैज्ञानिक आर्थिक सामाजिक राजनैतिक आध्यात्मिक क्षेत्र ही क्यों न हो। तो फिर क्यों विदेशियों-साहित्यकारों ने इस महान भूमि की महिमा का गुणगान किया। हमें तो बुलंद आवाज में कहना चाहिए-हम भारत मां की संतान है। उस भारत मां की जिसने हमें गुण ही गुण दिए हैं। जिसकी रीत में भी प्रीत है। हमें जागना होगा आध्यात्मिक रूप से। भारत की महिमा से जागरूक होना पड़ेगा। भारत का हृदय स्पंदन उसकी देवसंस्कृति में निहित है। अध्यात्म ही भारत का प्राण-स्त्रोत अथवा जीवन-केन्द्र है। अतएव जब तक भारत में आध्यात्मिक संस्कृति का स्फुरण है, तब तक भारत जीवंत है, अपराजेय है। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से सभी पाठकों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
आशुतोष महाराज
(संस्थापक एवं संचालक, दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान)