कमल सेखरी
आज एक बार फिर भारी हंगामे के बीच लोकसभा की संसदीय कार्यवाही को स्थगित करना पड़ा और साथ ही दूसरी ओर राज्यसभा की कार्यवाही से विरोध प्रकट करते हुए समूचे विपक्षी दल के सदस्यों ने सदन से वॉकआउट कर दिया। ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है। पिछले सात-आठ साल से परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी हैं कि राजनेताओं के बीच आपसी सद्भाव बुरी तरह से खंडित हुआ है और दोनों ही सदनों लोकसभा तथा राज्यसभा की कार्यवाहियां अनेकों-अनेक बार या तो बीच में ही स्थगित करनी पड़ी हैं या फिर विपक्षी दलों ने विरोध प्रकट करते हुए दोनों ही सदनों से वॉकआउट किया है। दोनों ही सदनों के सम्मानित सदस्यों का ऐसा व्यवहार न तो राष्टÑ हित में है और न ही लोकतंत्र में सार्थक संकेत देता है।
लोकसभा और राज्यसभा हमारे देश के ये दो सदन ऐसे हैं जिनमें निर्वाचित और मनोनीत सदस्य देश की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं और यह उनका नैतिक दायित्व होता है कि वो इन दोनों सदनों की कार्यवाही के दौरान न केवल अच्छा वातावरण बनाए रखें बल्कि एक क्षण खोए बिना ही जनता के हितों और समस्याओं पर खुलकर बातचीत करें और मिलकर उसका हल निकालने की कोशिश करें। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ऐसा ही देखने में आ रहा है कि देश के इन दोनों श्रेष्ठ सदनों में जनहित के मामलों का न तो उचित तरीके से निराकरण हो पाता है और न ही जनहित की किसी बड़ी योजना पर कोई ठोस फैसला लिया जाता है। दोनों ही सदनों की अधिकांश बैठकें शुरू ही भारी हंगामे के बीच होती हैं और अपना उस दिन का कार्य समय पूरा किए बिना ही बीच में या तो स्थगित की जाती है या फिर विपक्षी दल संयुक्त रूप से इन बैठकों का बहिष्कार कर सदन से बाहर चला जाता है। सदन की इन कार्यवाहियों पर प्रतिदिन जनता का कई करोड़ रुपया यूं ही व्यर्थ में खर्च हो जाता है और लंबे समय तक पूर्ण सहमति से कोई निर्णय भी नहीं लिया जाता है।
हमारे राजनेताओं का इस तरह का व्यवहार लोकतंत्र में अच्छे संकेत नहीं दे रहा है। जिन सदनों में फैसले एकतरफा बिना बहस किए, बिना विपक्ष की राय लिए ले लिए जाते हैं तो वहां लोकतंत्र के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाते हैं।
बीत दिन सोमवार को लोकसभा व राज्यसभा में जिस तरह से कृषि बिल वापिस लेने का प्रस्ताव सरकार ने एक तरफा पारित करा लिया और विपक्ष को इस मुद्दे पर दो शब्द भी बोलने का मौका नहीं दिया तो ऐसे में लोकतंत्र का वजूद बाकी ही कहां रह जाता है। केन्द्र सरकार जिस तरह से पूरे देश में अपना व्यवहार प्रदर्शित कर रही है उससे लगता है कि वह देश को चलाने के लिए विपक्ष मुक्त व्यवस्था चाहती है। सत्ता दल को अपने हिसाब से कुछ भी काम करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी जाए ऐसा प्रयास केन्द्र सरकार के व्यवहार का एक बड़ा हिस्सा बनकर सामने आ रहा है।
यह गंभीर सोच का विषय है कि क्या हम किसी भी सत्ता को ऐसा बलशाली बनने की आजादी दे सकते हैं जिसमें वो अपनी मर्जी और मनमानी एकतरफा करती रहे और उसके किसी भी काम में बाधा डालने या उसका विरोध करने वाला कोई हो ही ना। अगर हम इसी तरह से विपक्ष मुक्त भारत की सोच लेकर आगे बढ़ते रहे तो फिर देश में लोकतंत्र जीवित ही कहां रह जाएगा। हमें गंभीरता से यह सोचना चाहिए कि हम अपनी व्यवस्था में किसी भी सत्ता को इतना समर्थन तो दें कि वो सुगमता से जनहित के कार्य कर सके लेकिन उसे इतनी ताकत ना दे दें कि वो सारे फैसले अपने मनमाने ढंग से एकतरफा ही लेती रहे।
लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि विपक्ष मजबूत हो और इतना मजबूत हो कि वो किसी भी सत्ता की मनमानी पर रोक लगा पाने में सक्षम हो। हमारी आज की परिस्थिति में विपक्ष इतना मजबूत नहीं है कि वो सत्ता की मनमानी को रोक पाने की स्थिति में हो और अपनी बात को मजबूती से रख सके। हमें आने वाले प्रदेश चुनाव में और आम चुनाव में अपना इतना सार्थक योग तो जोड़ना ही चाहिए कि हमारी व्यवस्था मजबूत हाथों में रहे लेकिन उसकी मनमानी को रोकने और उस पर लगाम लगाने के लिए विपक्ष भी इतना मजबूत हो कि वो उसकी हर मनमानी को मजबूती से रोक पाए। अगर ऐसा हो पाया तो तभी भारत में लोकतंत्र जीवित रह पाएगा अन्यथा हमारी राजनीतिक व्यवस्था वर्तमान में जिस दिशा में चल पड़ी है वो दिशा जल्द ही देश में तानाशाही की स्थिति पैदा कर सकती है।