कमल सेखरी
किसी भी देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य नहीं हो सकता कि वहां की जनता अपनी व्यवस्था के प्रति विश्वास न रखती हो। कोई भी राजा अगर अपनी प्रजा में अपना विश्वास खो देता है तो वो योग्य राजा तो कहलाने की स्थिति में आ ही नहीं पाता बल्कि वो जब तक भी कुर्सी पर आसीन रहता है तो उसका शासन न तो सुगमता से चल पाता है और न ही जनहित के परिणाम दे पाता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक सप्ताह पूर्व राष्टÑ के नाम संबोधन में यह घोषणा कर दी थी कि किसानों की नजर से विवादित तीनों कृषि बिल सरकार वापस ले रही है। प्रधानमंत्री ने इन कृषि बिलों को वापस कराने के लिए एक साल से आंदोलन कर रहे किसानों से यह अपील भी की कि सरकार ने उनकी बात मान ली है अब उन्हें आंदोलन खत्म कर अपने घर लौट जाना चाहिए। लेकिन प्रधानमंत्री की इस सार्वजनिक घोषणा के बाद भी न तो आंदोलित किसानों ने अपना आंदोलन वापस लिया और न ही वो धरना स्थलों को छोड़कर वापस घर लौटे। किसानों का कहना था कि उन्हें प्रधानमंत्री की घोषणा पर विश्वास नहीं है। किसानों ने यह बात रखी कि विवादित तीनों कृषि बिल संसद में पास हुए थे और जब तक वो संसद से ही वापिस नहीं लिए जाते तब तक किसान न तो अपना आंदोलन खत्म करेंगे और न ही घर वापिस लौटेंगे। हालांकि इन तीन विवादित कृषि बिलों के अलावा भी किसानों की कुछ और मांगे थीं जो प्रारंभ से ही आंदोलन का हिस्सा बनकर चल रही थीं उसमें प्रमुख मांग कृषि उत्पादन के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का कानून बनाया जाना अहम था।
अब किसानों ने अपनी मांगों में यह भी जोड़ दिया है कि इस एक साल के आंदोलन के दौरान जिन सात सौ से अधिक किसानों की मौत हुई है उनके परिवारों को मुआवजा दिया जाए और इस आंदोलन में मारे गए किसानों को शहीद का दर्जा देकर देश की राजधानी दिल्ली में उनकी याद में शहीद स्मारक का भी निर्माण किया जाए। बाद की ये दो मांगे सरकार के लिए कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं है। अगर सरकार अपनी जिद पर न अड़ी रहे तो आंदोलन के दौरान मृत्यु को प्राप्त हुए किसानों के परिवारों को मुआवजा देना और उनकी याद में शहीद स्मारक बनाना सरकार के लिए कोई बहुत बड़ा काम नहीं है। लेकिन कृषि बिलों की वापसी और कृषि उत्पादन का न्यूनतम समर्थन दर निश्चित करना सरकार के लिए एक बड़े विचार का विषय है। यह बड़ा विचार कई दृष्टिकोण से पेचीदा भी है इसमें दोराय नहीं। न्यूनतम दर कानून बनने के बाद उसका असर सामान्य खुले बाजार पर क्या पड़ेगा यह अभी से आकलन करने पर मानसिक विचलता भी घर करने लगती है। लेकिन हमें किसानों की वर्तमान दयनीय स्थिति पर भी विचार करना ही होगा। क्योंकि पिछले कुछ सालों में विकास के नाम पर हुए निर्माणों के लिए जो भूमि अधिग्रहण हुआ है उसमें किसानों की जमीनों का एक बड़ा हिस्सा चला गया है।
अब किसानों पर जमीनें छोटी रह गई हैं जिसमें उनके परिवारों का गुजर-बसर मुश्किल हो गया है। इन सभी बातों से अलग अगर हम इस बात पर अधिक गौर करें कि केन्द्र की सत्ता के मुखिया प्रधानमंत्री किसानों को जो आश्वासन देते हुए घर वापिस लौटने की अपील कर रहे हैं किसान प्रधानमंत्री की उस अपील पर विश्वास क्यों नहीं कर पा रहा है। शायद पूर्व के कुछ ऐसे कड़वे अनुभव हैं जहां सत्ताधारी नेताओं ने बड़े-बड़े आश्वासन देश की जनता को दिए हैं लेकिन समय निकल जाने के बाद उनमें से अधिकांश पर कोई काम नहीं किया और न ही उन्हें पूरा कर दिखाने की दिशा में कोई कारगर कदम उठाए। अगर आंदोलनरत किसानों की भावनाएं भी इसी कटु सत्य से जुड़कर अविश्वास की स्थिति पैदा कर रही हैं तो देश के लिए इससे बड़ा कोई दुर्भाग्य हो ही नहीं सकता। सत्ता के प्रति जनविश्वास का खंडित होना देश को खोखला बना देता है। देश को अब तक कई झूठे आश्वासन देने वाले नेताओं की नजर हैं ये दो पक्तियां:-
चादर पर बर्फ की लिखे थे सारे वायदे।
मौसम बदल गया सभी वायदे पिघल गए।।