कमल सेखरी
इसी महीने के दूसरे और तीसरे सप्ताह में होने जा रहे महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनाव और यूपी की नौ सीटों पर 13 नवंबर को होने वाले उपचुनाव देखने और सुनने में हो सकता है सामान्य से लग रहे हों लेकिन गहराई से सोचने और समझने के बाद ये तीनों राज्यों के चुनाव बड़े संजीदा मायने रख रहे हैं और देश को एक सोच और नई दिशा देने जा रहे हैं। अभी हाल में हुए लोकसभा के चुनावों ने देश को जो हटकर एक दिशा दी थी उससे केन्द्र में सत्ता संभाले भाजपा को निसंदेह एक बड़ा झटका मिला। लोकसभा के इन चुनावों ने यह दिखा दिया कि देश हिन्दू-मुस्लिम के बीच जो टकराव पैदा करके सत्ता को कायम रखने की कोशिश की जा रही थी वो कमजोर पड़ती नजर आई और भाजपा केन्द्र में अपना बहूमत खोकर अपने सहयोगी दलों की बैसाखियों पर आकर टिक गई। लेकिन हरियाणा प्रदेश के विधानसभा चुनाव ने उस विश्वास खो रही भाजपा को अचानक एक बड़ी ऊर्जा दी और भाजपा के जिन शीर्ष नेताओं के स्वर जो ऊंचाइयों से यकायक नीचे आ गए थे उनमें फिर एक नई ऊर्जा हरियाणा ने पैदा कर दी। अब उत्तर प्रदेश के नौ सीटों पर उपचुनाव और महाराष्ट्र व झारखंड के विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए फिर एक बड़ी परीक्षा की घड़ी आ गई है। देश की उपरोक्त बदलती परिस्थितियों के बीच भाजपा ने अपनी उसी पुरानी सोच और दिशा को और अधिक मजबूती से आगे बढ़ाने का काम शुरू कर दिया है। भाजपा का हिन्दू-मुसलमान का पुराना एजेंडा उसका फिर से मजबूत हथियार बनकर सामने आ खड़ा हुआ है।
होने जा रहे इन तीनों चुनावों में भाजपा के शीर्ष नेताओं ने मिलकर अपने उसी पुराने एजेंडे पर खुलकर खेलना शुरू कर दिया है। क्योंकि उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पिछड़े-दलित-अल्पसंख्यक को एक जगह मिलाकर अपनी पार्टी का जो नया फार्मूला तैयार किया उसने 2024 के लोकसभा चुनाव में अपना पुरजोर असर दिखाया और भाजपा उस फार्मूले से पार्टी को पहुंचे एक बड़े नुकसान से बुरी तरह बौखला गई। अब इस पीडीए के नए चुनावी मंत्र ने दलितों और पिछड़ों को फिर से अपने साथ पहले की तरह जोड़ने की दिशा में उसने खुलकर हिन्दू-मुस्लिम का खेल खेलना शुरू कर दिया है। बंटोगे तो कटोगे- एक रहोगे नेक रहोगे, इस तरह के कई नारे इजाद करके उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री और पार्टी के कई शीर्ष नेता इसी झंडे को उठाकर आगे चल पड़े हैं। इस बीच अपने पिछड़े मतदाताओं में अपना विश्वास पूरी तरह से खो चुकी बसपा सुप्रीमो मायावती जिन्होंने पहले कभी किसी भी उपचुनाव में हिस्सा नहीं लिया वो अपने अस्तित्व को बचाने के नाम पर इस बार के उपुचनावों में कूद पड़ी हैं हालांकि उसका कोई असर चुनावी माहौल पर अभी तक तो पड़ता नजर नहीं आ रहा लेकिन वो भाजपा को कम और सपा को अधिक नुकसान पहुंचाती नजर आ रही हैं।
कुल मिलाकर इसी माह होने जा रहे ये चुनाव निसंदेह देश में एक नई सोच पैदा करने के साथ-साथ एक नई दिशा भी दे सकते हैं। देश हिन्दू-मुसलमान के विभाजन की राह पर चलेगा या सामाजिक न्याय के नाम अगड़े-पिछड़ों के बीच समानता का अधिकार देने की राह निश्चित करेगा। भाजपा का फार्मूला चला तो देश अगले कई सालों तक भाजपा की सत्ता के साथ ही रहेगा और अगर सामाजिक न्याय और सामाजिक समानता का विपक्ष का फार्मूला अपना जोर दिखा गया तो देश में भाजपा के उदय हुए सूरज के अस्त होने के संकेत बनने शुरू हो जाएंगे। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र इसमें अहम भूमिका निभाएंगे।