- कांग्रेस को जाटों से ज्यादा ध्यान पिछड़े-दलितों पर देना चाहिए था
- हरियाणा परिणामों ने कांग्रेस को दिया बड़ा झटका
- राहुल को अपनी कमजोरियों से उभरना होगा
कमल सेखरी
हरियाणा में भाजपा अपनी हारी बाजी जीत गई और कांग्रेस अपनी जीतती बाजी हार गई। हरियाणा के ये परिणाम ना तो कोई अचंभा है और ना ही कोई जादू हुआ है। भाजपा की सुलझी राजनीतिक समझ ने बाजी पलट दी और कांग्रेस की अपरिपक राजनीतिक सोच ने हाथ में आ चुकी जीत रेत की तरह अपनी मुट्ठी से फिसला दी। हुड्डा..हुड्डा..हुड्डा के नाम का एक बड़ा होव्वा बनाकर कुछ ऐसे खड़ा किया गया मानो जाटों के कंधों पर बैठकर ही कांग्रेस चुनावी समर पार कर जाएगी। भूपेन्द्र हुड्डा और जाटों की कांग्रेस को इस चुनाव में बहुत ज्यादा जरूरत नहीं थी। किसानों की नाराजगी, अग्निवीर योजना को लेकर युवाओं की नाराजगी और पहलवानों के साथ किए गए दुर्व्यवहार को लेकर हरियाणा के पहलवानों की नाराजगी ही पर्याप्त कारण थी कि हरियाणा के जाट अपने आपसे ही कांग्रेस के साथ जुड़े रहते। भाजपा ने अपनी इन कमजोरियों को पहले ही आंक लिया था और उन्होंने चुनाव से मात्र छह महीने पहले वहां के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर को हटाकर एक नया पिछड़ा जाति का चेहरा नायाब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाकर और उनके नेतृत्व में ही हरियाणा का चुनाव कराने की घोषणा करके हरियाणा के पिछड़े और दलित समाज को जाटों के विरुद्ध एकजुट करने का काम बड़ी मजबूती से किया। वहीं दूसरी ओर भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के रुखे और अड़ियल व्यवहार के कारण हरियाणा की एक बड़े कद की दलित कांग्रेस नेत्री कुमारी शैलजा जो टिकटों के वितरण को लेकर नाराज चल रही थीं उन्हें मनाने का काम नहीं किया गया। कांग्रेस नेतृत्व की बागडोर संभाले राहुल गांधी भले ही राष्ट्रिय स्तर पर पार्टी को एक नई मजबूती देकर तेजी से ऊभर कर आगे आए हैं वो भी भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को मना पाने की हिम्मत नहीं कर पाए। श्री हुड्डा ने नब्बे में से 72 सीटें अपनी मर्जी से वितरित की और कुमार शैलजा जो बीस सीटें मांग रही थीं उन्हें केवल 5 सीटें देकर ही एक तरफ बैठा दिया। कुमारी शैलजा के साथ हरियाणा कांग्रेस ने जो व्यवहार किया उसका विपरीत असर हरियाणा के पिछड़े और दलित मतदाताओं पर पड़ा।
दलितों की ये ही नाराजगी कांग्रेस को भारी पड़ गई और परिणाम जो कांग्रेस के पक्ष में बड़ी मजबूती से आते नजर आ रहे थे वो मतगणना के साथ ही बिखर गए। राहुल गांधी ने ये ही गलती पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में राजस्थान और मध्यप्रदेश को भी लेकर की। राजस्थान में वो पुराने कांग्रेसी नेता अशोक गहलौत के सामने कमजोर पड़ गए और युवा कांग्रेसी नेता सचिन पायलट की उपेक्षा कर बैठे। इसी तरह मध्यप्रदेश में व्योवृद्ध कांग्रेसी नेता कमलनाथ के सामने भी राहुल गांधी मजबूती से खड़े नहीं रह पाए और उन्होंने अकारण और अनावश्यक ही अपनी पार्टी के युवा नेता ज्योतिराज्य सिंधिया को नाराज कर दिया और श्री सिंधिया पार्टी से अलग हो गए जिसका बड़ा खामियाजा कांग्रेस को उठाना पड़ा। राहुल गांधी को अब समझ जाना चाहिए कि पिछड़े और दलितों की राजनीति केवल मंचों पर भाषण देकर ही नहीं की जा सकती आप उनके हितकारी हैं यह प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से नजर भी आना चाहिए।
हरियाणा का चुनाव हारते ही कांग्रेस की जो पकड़ देश की राजनीति पर बन रही थी वो यकायक कमजोर पड़ती नजर आ रही है। आने वाले चुनावों में कांग्रेस को महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार, दिल्ली और यूपी की दस सीटों के उपचुनावों में भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। कांग्रेस को चाहिए कि अब समय व्यर्थ किए बिना अपनी पार्टी के उन बुजुर्ग नेताओं जिनकी उम्र 70 साल से अधिक हो गई है उन्हें फुंके कारतूसों की तरह निकालकर अलग करे और उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाए। भाजपा ने श्री आडवाणी, श्री जोशी और श्री मिश्रा जैसे बुजुर्ग पुराने नेताओं को मुख्यधारा से अलग कर सलाहकार समिति में डालकर जो काम किया उससे ही भाजपा आज यहां तक पहुंचने में सफल हो पाई है। कांग्रेस को भी कुछ ऐसा ही करना होगा।