सामंत सेखरी
गाजियाबाद। बड़े-बुजुर्ग बच्चों को सामाजिक रिश्ते का महत्व समझाते हुए कहते थे कि बेटा एक बार किसी की खुशी में शरीका न होना लेकिन गम में जरूर जाना। ऐसा इसलिए कहते थे कि जिनके घर में गमी होती है, आपके पहुंचने से उसे सदमे से उबरने में हिम्मत मिलती थी। साथ ही यह भी पता लग जाता था कि मरने वाले को कंधा देने के लिए कितने लोग पहुंचे। यह सामाजिक प्रतिष्ठा को भी दर्शाता था। मरने वाले की अच्छाई-बुराई का भी ऐसी जगहों पर ही लोगों के मुंह से जिक्र होते सुना जा सकता था। लेकिन कोरोना वायरस के चलते यह सब बातें बहुत पीछे छूट गई हैं। आलम यह है कि कोरोना से मरने वाले अधिकांश को चार कंधे भी नसीब नहीं हो रहे हैं। जिस पिता ने अपनी पूरी जिंदगी परिवार को संवारने में लगा दी, वक्त ऐसा सितमगर साबित हुआ कि आज उन्हीं की मौत पर उनकी अर्थी को देने के लिए चार कंधे भी नसीब नहीं हो रहे हैं। हिंडन श्मशान घाट पर ऐसा नजारा देखकर आंखें नम हो जाती हैं। अंतिम संस्कार के मायनों को ही बदल देने वाले कोरोना के इस कहर ने लोगों को इतना विवश कर दिया है कि वो रो रहे हैं लेकिन चाहकर भी कुछ कर नहीं पा रहे हैं। रिश्तेदार भी सहायता करने से मुंह मोड़ रहे हैं। कोरोना संक्रमण का हवाला देकर कोई भी आगे आने को तैयार नहीं हो रहा है। श्मशान घाट में धधकती चिता के सामने एक बेटा बस यही बोलता रहा, अब कैसे कटेगी जिंदगी। कोरोना तेरा बहुत बुरा होगा, तूने मेरी मां को मुझसे छीन लिया। अब कैसे मेरी जिंदगी कटेगी। जिस मां ने मेरी शादी के सपने संजोय थे, तेरे कारण वह मुझे छोड़कर चली गई। कोरोना संक्रमण की वजह से मृतकों के बच्चे व , एक पति अपनी पत्नी तो पत्नी अपने पति के अंमित दर्शन तक नहीं कर पा रहे हैं। कोरोना के लिए लोगों की जुबान से यही बददुआ निकलती है कि तेरा जड़मूल नाश होगा।