- वश में करने जब से काम न आए मंत्र, है गवाह इतिहास तब रचा गया षड्यंत्र : ममता किरण
- असलियत आदमी की कब पता लगती है चेहरे से, जुबां फौरन बताती है वो कितना खानदानी है : डॉ. लक्ष्मी शंकर बाजपेई
गाजियाबाद। सिल्वर लाइन प्रेस्टीज स्कूल में आयोजित महफिल ए बारादरी में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कवयित्री ममता किरण ने कहा कि गाजियाबाद और बारादरी एक दूसरे के पर्यायवाची हो गए हैं। उन्होंने कहा कि चैनल्स से लेकर बड़े मंचों तक कविता कितने प्रतिशत शेष रह गई है यह हम सभी जानते हैं। ऐसे आयोजन ही कविता को जिंदा रखते हैं। क्योंकि कविता मोहब्बत की, इंसानियत की, सामाजिकता की बात करती है। नफरत की बात कविता नहीं करती। कविता वंचितों, शोषितों की बात करती है। जहां-जहां अन्याय है उसकी बात करती है। हम जिस माहौल में रहते हैं वहां संवेदना और कविता ही हमें सुरक्षित रखती है। कविता की जो मशाल बारादरी ने जला रखी हैं वह जलती रहनी चाहिए। उन्होंने दोहों के माध्यम से अपनी बात रखी। बच्चों को पर क्या मिले छोड़ गए वो साथ, दीवारें ही बच गई जिन से कर लो बात”। बच्चे परदेसी हुए, सूने घर संसार, इंटरनेट पर ही मने अब सारे त्यौहार”। विज्ञापन में छा रहा रिश्तों का जो जाल, जीवन में आ जाए तो हो जीवन खुशहाल। वश में करने जब से काम न आए मंत्र, है गवाह इतिहास तब रचा गया षड्यंत्र।
नेहरू नगर स्थित सिल्वर लाइन प्रेस्टीज स्कूल में आयोजित महफिल ए बारादरी की अध्यक्षता करते हुए ममता किरण ने बेटियों को समर्पित शेर में कहा एक निर्णय भी नहीं हाथ में मेरे, कोख मेरी है कैसे बचा लूं तुमको। बाग जैसे गूंजता है पंछियों से, घर मेरा वैसे चहकता बेटियों से। घर में आया चांद उसका जान कर वो, छुप के देखे चूड़ियों की कनखियों से। शेर फोन वो खुशबू कहां से ला सकेगा, जो आती थी तुम्हारी चिट्ठियों से पर भी उन्होंने भरपूर दाद बटोरी। कार्यक्रम की मुख्य अतिथि डॉ. अलका टंडन भटनागर ने कहा कि अदब से उनका नाता बचपन से ही रहा है। लेकिन बारादरी से जुड़कर उनके भीतर का कलमकार पुन: जीवित हो रहा है। उन्होंने अपने प्रारंभिक दौर की पंक्तियां क्यों कैद हो औरों के बनाए बंधनों में, मुक्त होकर तलाश करो अपनी राह” पर सराहना बटोरी।
कार्यक्रम के विशेष आमंत्रित अतिथि डॉ. लक्ष्मी शंकर बाजपेई ने भी अपने चिरपरिचित अंदाज में कुछ यूं फरमाया छुपाए राज कितने ही सभी की जिंदगानी है, कोई भी तख्त हो अपनी अलग कहानी है। असलियत आदमी की कब पता लगती है चेहरे से, जुबां फौरन बताती है वो कितना खानदानी है। वो जब दरिया का हिस्सा था दरिया की रवानी था, जो अब छूटा है दरिया से तो बस ठहरा सा पानी है। संस्था की संस्थापिका डॉ. माला कपूर ‘गौहर’ की गजल के अशआर रात भर रात मुख़्तसर न हुई, लाख चाहा मगर सहर न हुई। जिस दुआ में उसे ही मांगा था, वो दुआ मेरी बा-असर न हुई। हाल से मेरे बा-खबर सब थे, जाने क्यों उसको ही खबर न हुई। उसने गौहर मुझे तराशा यूं, मैं जमाने में दर-ब-दर न हुई भी खूब सराहे गए। मासूम गाजियाबादी के शेर वो अपने आपको हर शख़्स से काबिल समझता है, अजीब इन्सान है नुकसान को हासिल समझता है। जो मुंह पढ़कर सुब्हो का शाम की नियत बताता था, सुना है अब इशारों को भी बा-मुश्किल समझता है। यकीं से दूर तक जैसे तआल्लक ही नहीं उसका, दगाबाजी में हर इन्सान को शामिल समझता है भी खूब सराहे गए। प्रमोद कुमार कुश ‘तन्हा’ ने कहा इक रौशनी के पीछे चिंगारियां बहुत हैं, इस उम्र के सफर में दुश्वारियां बहुत हैं। देखो न सिर्फ़ चेहरा अंदाज पर न जाओ, इन्सां की सोच में भी मक्कारियां बहुत हैं।
डॉ. ईश्वर सिंह तेवतिया के गीत की पंक्तियां “बोझ समझते हो क्यों हमको, तथ्यों को स्वीकार करो तुम, अपने सर से भार उतारो, फिर हम पर उपकार करो तुम। सब जजबात ताक पर रख दो, आओ चलो व्यापार करो तुम, छोड़ो फर्ज-वर्ज की बातें, चुकता सिर्फ उधार करो तुम भी भरपूर सराही गईं। रिंकल शर्मा ने द्रौपदी की व्यथा कुछ यूं बयां की “मृत्यु द्वार पर खड़ी द्रौपदी, अब अंतिम विदाई लेती है, करुण, व्यथित, मन और निश्तेज नयन से, हस्तिनापुर से पूछती है, कि बता आखिर मेरा कसूर क्या था? अनिल वर्मा ‘मीत’ ने कहा हुस्नो-इश्क में जंग जो जारी रहती है, जेहन ओ दिल में बारी-बारी रहती है। कासिद आता-जाता रहता है लेकिन, मिलने-जुलने में दुश्वारी रहती है”। मृत्युंजय साधक का मुक्तक आँँसुुओं से हमारी तो यारी रही, हर खुशी जिÞंदगी भर कुंआरी रही, वेदना ही रही उम्र भर हमसफर, प्यार की हर नदी सिर्फ खारी रही भी खूब सराहा गया। आशीष मित्तल की कविता क्या मैं पढ़ने के लायक हूं की पंक्तियां गजल पढ़ूं या गीत पढ़ूं, या कोई मधुर संगीत पढ़ूं, मैं राम सिया की प्रीत पढ़ूं, या नए प्रेम की रीत पढ़ूं” भी सराही गईं। कीर्ति रतन ने भी अपने अशआर खाब ओ खयाल से जरा बाहर तो आइए, कहने को कुछ न सूझे तो बस मुस्कुराइए। “हर तरफ हर जगह बेशुमार आईने, झूठ करते हुए तार-तार आईने” पर वाहवाही बटोरी। डॉ. वीना मित्तल ने मकर संक्रांति के अवसर पर पतंग को केंद्र में रख कर कई हाईकू प्रस्तुत किए। कार्यक्रम का शुभारंभ ऊषा श्रीवास्तव ‘राज’ की सरस्वती वंदना ”माता सरस्वती ज्ञान का वर दे, जीवन को अब ज्ञान से भर दे” से हुआ। राजीव ‘कामिल’ ने फरमाया “कहीं सांसे चलाता है कहीं कश्ती डुबाता है, न जाने कितनी जेहमत से दुनिया चलाता है”। दिलदार देहलवी ने अपने शेरों ”यार तूने तो इन्तेहा की है, सोच ले जिÞंदगी खुदा की है। आग आकर बुझाई औरों ने, मेरे यारों ने तो हवा दी है” पर खूब दाद बटोरी। डॉ. तारा गुप्ता ने कहा “प्रेम पर गजल हम लिखेंगे नहीं, गर खुल कर लिखेंगे तो पढ़ेंगे नहीं”। नेहा वैद के गीत की पंक्तियों “बंद न हो यह दिल का खाता, चलो संभालें हम, करके जमा प्यार की पूंजी, इसे बचा लें हम भी भरपूर सराही गईं। कार्यक्रम का सफल संचालन करने के साथ-साथ तरुणा मिश्रा ने अपने शेरों एक अकेली तन्हाई है, जिसको आई याद मेरी, उसने मुझको पास बिठाया, और सुनी रूदाद मेरी। इक कमरे में गम ठहरे हैं, इक कमरे में दर्द रुका, खाली घर के हर कोने में दुनिया है आबाद मेरी” पर भरपूर दाद बटोरी। कार्यक्रम में डॉ. स्मिता सिंह,अनुराग जैन एवं शिल्पी जैन को विशेष आमंत्रित अतिथि के रूप में सम्मानित किया गया। कार्यक्रम में अनिमेष शर्मा, डॉ. अंजू सुमन साधक, माधवी शंकर, राजेश श्रीवास्तव एवं संजीव शर्मा के गीत, गजल और दोहे भी भरपूर सराहे गए। इस अवसर पर आलोक यात्री, तेजवीर सिंह, वी. के. शेखर, सत्य नारायण शर्मा, अक्षयवरनाथ श्रीवास्तव, सुशील शर्मा, गीता रस्तौगी, अंशुल अग्रवाल, रवि शंकर पाण्डेय, तिलक राज अरोड़ा, देवेन्द्र गर्ग, राकेश कुमार मिश्रा, रेनू अग्रवाल, मेघराज सिंह, सुनीता रानी, प्रतीक वर्मा, टेक चंद, तन्नु पाल, साक्षी देशवाल, सिमरन, धर्मपाल सिंह, वंदना, गुरमीत चावला, हीरेंद्र कांत शर्मा व दीपा गर्ग सहित बड़ी संख्या में श्रोता उपस्थित थे।